महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय की ओर से अगरतला (त्रिपुरा) में वास्तुशास्त्रसंबंधी शोधकार्य प्रस्तुत

साधना कर वास्तुदोषों का अनिष्ट प्रभाव कम करें ! – राज कर्वे,

 

कतरास: अभी हाल ही में अगरतला, त्रिपुरा में ‘नैशनल सेमिनार ऑन कन्ट्रिब्यूशन ऑफ वास्तुशास्त्र इन मॉडर्न कन्टेक्स्ट’ परिषद संपन्न हुई । इस परिषद में ‘महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय’के ज्योतिष विशारद आणि वास्तुशास्त्र अभ्यासक. राज कर्वे ने वास्तुशास्त्रानुसार वास्तु-निर्मिति करने के लाभ और वास्तुदोषों के निवारण के लिए सुलभ आध्यात्मिक उपायों के साथ ही ‘साधना करने का महत्त्व !’ शोधनिबंध प्रस्तुत किया । इस शोधनिबंध के मार्गदर्शक सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवले और लेखक श्री. कर्वे हैं । श्री. कर्वे ने कहा, ‘‘जिसप्रकार वास्तु का परिणाम व्यक्तिपर होता है, उसीप्रकार व्यक्ति का भी परिणाम वास्तु पर होता रहता है । साधना करनेवाले व्यक्ति का वास्तु पर सकारात्मक परिणाम होकर वास्तुदोषों का हानिकारक प्रभाव न्यून होता है !महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय द्वारा अक्टूबर 2016 से नवंबर 2023 तक, 18 राष्ट्रीय और 93 आंतरराष्ट्रीय, इसप्रकार कुल 111 वैज्ञानिक परिषदों में शोधनिबंध प्रस्तुत किए गए । इनमें से 13 आंतरराष्ट्रीय परिषदों में ‘सर्वाेत्कृष्ट प्रस्तुतिकरण’ पुरस्कार मिले हैं ।

श्री. राज कर्वे ने बताया कि वास्तुशास्त्रानुसार घर का प्रवेशद्वार उचित दिशा में होने पर घर में सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित होती है । इसके विपरीत प्रवेशद्वार निषिद्ध स्थान पर होने पर घर में नकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित होती है । यह वैज्ञानिक उपकरण के प्रयोग से भी प्रमाणित किया गया है । संक्षेप में, वास्तुशास्त्रानुसार घर का निर्माण करने पर घर में सकारात्मक स्पंदन निर्माण होकर व्यक्ति को सुख और शांति प्राप्त होती है ।. राज कर्वे ने आगे कहा, वास्तुशास्त्रानुसार घर का निर्माण करने से घर में सकारात्मक स्पंदन निर्माण तो होते हैं, पर उन स्पंदनों का टिके रहना घर के लोगों के आचरण पर निर्भर करता है । व्यक्ति में स्वभावदोष एवं अहं की मात्रा अधिक होने पर उससे अयोग्य आचरण होता है । इसके परिणामस्वरूप वास्तु में नकारात्मक स्पंदन निर्माण होते हैं, इसके विपरीत व्यक्ति में अच्छे गुण अधिक हों, तो उससे योग्य आचरण होता है और वास्तु में सकारात्मक स्पंदन निर्माण होते हैं । साधना के कारण व्यक्ति का स्वभावदोष एवं अहं न्यून होकर सद्गुण बढता है । साथ ही उस व्यक्ति में विद्यमान रज-तम भी न्यून होता है और उसमें सत्त्वगुण बढता है । इसका शुभ परिणाम वास्तु पर होता है और वह सकारात्मक (सात्त्विक) बनती है । इसका उत्तम उदाहरण है संतों की वास्तु ! संत साधनारत होने से वे जिस वास्तु में निवास करते हैं, वह वास्तु सात्त्विक होती है । इसलिए संतों का जन्मस्थान, निवासस्थान, उनके द्वारा उपयोग में लाई वस्तु इत्यादि संजोने परंपरा भारत में है । इस विषय में शोधकार्य भी प्रस्तुत किया गया है ।

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