संत शिरोमणि रविदास प्रेम भाईचारगी का फैलाए थे संदेश
संजय सागर
भारत आध्यात्मिक क्षेत्र में प्राचीन काल से ही विश्व गुरु रहा है। भक्ति काल में जब भारतीय समाज विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहा था, उस समय प्रकाश पुंज की भांति एक महापुरुष का उदय हुआ था । वह महापुरुष का नाम संत शिरोमणि रविदास है। इन्होंने भारतीय समाज में समरसता लाने के लिए नया अवतार लिया। संत शिरोमणि रविदास भक्ति एवं रचना के माध्यम से भारतीय समाज में भाईचारा प्रेम का संदेश फैलाया। यही कारण है कि आज भी संत शिरोमणि रविदास भारतीय समाज के लिए प्रेरणादायक है। ऐसे संत को किसी एक जाति वर्ग में जयंती मनाना छोटी सोच का परिचायक होगा ।क्योंकि यह संत सभी जाति और धर्म के लिए समरसता लाया। उनकी जयंती इस वर्ष 24 फरवरी को मनाई जाएगी।
माघ पूर्णिमा के दिन हर साल गुरु रविदास जी की जयंती पूरे भारतवर्ष में मनाई जाती है। और अब विदेशों में भी मनाया जाने लगा है। संत शिरोमणि रविदास का जीवन ऐसे अद्भुत प्रसंगों से भरा है, जो दया, प्रेम, क्षमा, धैर्य, सौहार्द, समानता, सत्यशीलता और विश्व-बंधुत्व जैसे गुणों की प्रेरणा देते हैं। 14वीं सदी के भक्ति युग में माघी पूर्णिमा के दिन रविवार को काशी के मंडुआडीह गांव में रघु व करमाबाई के पुत्र रूप में इन्होंने जन्म लिया। इन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से आदर्श समाज की स्थापना का प्रयास किया। रविदास जी के सेवक इनको ” सतगुरु”, “जगतगुरू” आदि नामों से भी पुकारते हैं। संत रविदास अपने समकालीन चिंतकों से पृथक थे उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से विभिन्न सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया। वह जन्म तथा जाति आधारित वर्ण व्यवस्था के भी विरूद्ध थे।
संत रविदास महान संत थे
संत रविदास एक महान संत थे। उनके बारे में एक रोचक कथा भी प्रचलित है। इस कथा के अनुसार एक बार एक पंडित जी गंगा स्नान के लिए उनके पास जूते खरीदने आए। पंडित जी ने गंगा पूजन की बात रविदास को बतायी। उन्होंने पंडित महोदय को बिना पैसे लिए ही जूते दे दिए और निवेदन किया कि उनकी एक सुपारी गंगा मैया को भेंट कर दें। संत की निष्ठा इतनी गहरी थी कि पंडित जी ने सुपारी गंगा को भेंट की तो गंगा ने खुद उसे ग्रहण किया। संत रविदास के जीवन का एक प्रेरक प्रसंग यह है कि एक साधु ने उनकी सेवा से प्रसन्न होकर, चलते समय उन्हें पारस पत्थर दिया और बोले कि इसका प्रयोग कर अपनी दरिद्रता मिटा लेना। कुछ महीनों बाद वह वापस आए, तो संत रविदास को उसी अवस्था में पाकर हैरान हुए। साधु ने पारस पत्थर के बारे में पूछा, तो संत ने कहा कि वह उसी जगह रखा है, जहां आप रखकर गए थे।
सामाजिक एकता पर बल देते थे संत रविदास
संत रविदास बहुत प्रतिभाशाली थे तथा उन्होंने विभिन्न प्रकार के दोहों तथा पदों की रचना की। उनकी रचनाओं की विशेषता यह थी कि उनकी रचनाओं में समाज हेतु संदेश होता था। उन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा जातिगत भेदभाव को मिटा कर सामाजिक एकता को बढ़ाने पर बल दिया। उन्होंने मानवतावादी मूल्यों की स्थापना कर ऐसे समाज की स्थापना पर बल दिया जिसमें किसी प्रकार का भेदभाव, लोभ-लालच तथा दरिद्रता न हो।
कई नामों से जाने जाते थे संत रविदास
संत रविदास पूरे भारत में बहुत लोकप्रिय थे। उन्हें पंजाब में रविदास कहा जाता था। उत्तर प्रदेश, राजस्थान तथा मध्य प्रदेश में उन्हें रैदास के नाम से भी जाना जाता था। बंगाल में उन्हे रूईदास के नाम से जाना जाता है। साथ ही गुजरात तथा महाराष्ट्र के लोग उन्हें रोहिदास के नाम से भी जानते थे।
बहुत दयालु प्रवृत्ति के थे संत रविदास
संत रविदास बहुत दयालु प्रवृत्ति के थे । वह बहुत से लोगों को बिना पैसे लिए जूते दे दिया करते थे। वह दूसरों की सहायता करने में कभी पीछे नहीं हटते थे। साथ ही उन्हें संतों की सेवा करने में भी बहुत आनंद आता था। उत्तर प्रदेश के बनासर शहर में संत रविदास का भव्य मंदिर है तथा वहां सभी धर्मों के लोग दर्शन करने आते हैं।
संत रविदास ने देखा था मानव मुक्ति का सपना
संत गुरु रविदास बिना किसी आदर्शवादी में न पड़ते हुए व्यावहारिक जीवन की वस्तु स्थिति को स्वीकारते हुए अपनी बात कही है। उनकी चेतना में उनकी जातीय-अस्मिता इस प्रकार व्याप्त है कि उसी मानदण्ड से वह अपने जीवन-व्यवहार एवं कार्य-व्यापार की हर गतिविधि का अवलोकन एवं मूल्यांकन करते हैं। उनका आत्मनिवेदन उनकी जातिगत विडम्बनाओं की उपस्थिति के स्वीकार के साथ व्यक्त हुआ है। संत गुरु रविदास का यह वैशिष्ट्य संकेत करता है कि उनकी अभिव्यक्ति में सिर्फ आध्यात्मिक क्षेत्र की मुक्ति का स्वप्न नहीं बल्कि सामाजिक मुक्ति का स्वप्न भी विद्यमान है।
संत रविदास का दर्शन
संत गुरु रविदास ने समाज में पहले से व्याप्त जन्मना श्रेष्ठता की अवधारणा के विपरित कर्मणा-श्रेष्ठता की अवधारणा स्थापित की हैं। संत गुरु रविदास किसी को जन्म की जाति के आधार पर श्रेष्ठ मानने के बजाय उसके कर्मों को उसकी श्रेष्ठता का आधार मानते हैं। वह जाति के आधार पर नहीं बल्कि सर्वश्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न व्यक्ति को सम्मानित करने के का समर्थन करते हैं। इस प्रकार हमें विश्वास है कि यदि हम बौद्धिकता, वैज्ञानिकता एवं तार्किकता को अपनी सोच का आधार बनाते हैं तो निसन्देह धार्मिक-अंधविश्वास, पाखण्ड, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, आतंकवाद जैसे ज्वंलत राष्ट्रीय समस्याओं से मुक्ति पा सकेंगे।बहरहाल मीराबाई के संत गुरु रविदास को गुरु मानने से यहीं ध्वनित होता है कि यथार्थ बोध एवं अस्मिता बोध से सम्पन्न दलित, वंचित समाज को, समाज के अन्य वर्गों का भी समर्थन एवं सहयोग मिलता है। डॉ. अम्बेडकर ने भी इसी सत्य को स्वीकार किया था तथा महात्मा गांधी जैसे विचारक भी उनका सम्मान करते थे।