संजय सागर
झमाझम बरस रही है बदरिया सावन की जैसे रुत आई है ,मनभावन की। भीनी खूशबू के साथ खिल उठी हैं कलियां, बारिश की भी बढ़ गई है सरगोशियां। सावन झूमकर आई है। सावन आने से आकाश बादल एवं धरा भी झूम उठी है. वर्षा रानी भी पायल जैसी आवाज करती छम छम बरसने लगी है। बारिश के बंदे से धारा भी तृप्त होती है। पेड़ पौधे और फूल भी झूम उठे है. शीतल हवा भी इतराने लगी है। बादल बौराने लगे हैं। बच्चे बूढ़े और जवान मत होने लगे हैं। युवा दिल भी खिल उठे। बिरहापन जवानी भी अपने प्रिया और प्रियतम की याद में तड़पने लगे हैं। मोर पपीहा नाचने लगे। पक्षियों की चहचहाट गूंजने लगे है। किसान खेतों की ओर जाने लगे हैं।अब सावन भर खेतों में बैलों के गले की घुंघरू बजेगी। धान रोपनी की गीत गुंजन होगी। किसान अब बैलों के साथ हल जोतेंगे ताता ताता…नौ नौ.. करेंगे। युवा दिलो का मन प्रेम की सागर डूब जाते हैं।
इस ऋतु में देह व मन दोनों की आकांक्षा बलवती हो कर अधीर कर देती है। संयम का बाँध टूटने-टूटने को हो आता है, और प्रिया के द्वारा प्रियतम की प्रतीक्षा चिर प्रतीक्षा में तब्दील हो जाती है। इसी अधीरता में जब यौवन की गागर बेसँभार होकर छलकने को हो आती है तो अपने विरही चित्त को सँभालते हुए गँवई विरहन गा उठती है –
छलकल गगरिया मोर निरमोहिया छलकल गगरिया मोर बिरही मोरनियाँ मोरवा निहारे पियवा गईल कवनी ओर छलकल गगरिया मोर… कि छलकल गगरिया मोर।
ग्रीष्म के ताप से तपी, और तप कर अतृप्त हुई धरती के तृप्ति की आकांक्षा है सावन। इस अतृप्ति में तृप्ति के लिए जो भोग है वह दरअसल भोग नहीं उपभोग है। उस तृप्ति की आकांक्षा में जिस सुख की चाह है वही सुख सृजन का मूल है। धरती आतुर होती है मेघ के लिए और मेघ की उन समस्त कलाओं के लिए भी जिसको गँवई स्त्रियों द्वारा अपने प्रवासी पतियों की प्रतीक्षा में आदरपूर्वक निहारा जाता है, और जिनका आकाश में पंक्तिबद्ध हो उड़ती बगुलियाँ गर्भाधान के उत्सव का क्षण मान कर अपने नेत्रों में आश्रय कर लेती हैं। एक कवि ने अपने काव्य में लिखा है कि
गर्भाधानक्षणपरिचयान्नूनमाबद्धमालाः सेविष्यंते नयन सुभगं खे भवंतम बलाकाः ॥
सावन के महीने में धरती अपनी धानी चुनर ओढ़ती है और बरसते बादल से भीग कर सराबोर होने को अतुर हो उठती है। जब तक बादल जी खोल कर बरसते नहीं तब तक धरतीरूपी दुल्हन की चुनर को कोरी यानी बिना भीगा हुआ माना जाता है।
धरती की अपनी चुनर भीगने की प्रतीक्षा और बादल के जी खोल कर बरसने की लालसा दरअसल स्त्री-पुरुष संबंधों का ही द्योतक है। इसीलिए सावन विरह और प्रेम दोनों का महीना माना गया है। लोकगीतों में इस प्रेम के बहुविध रंग मिलते हैं।
धरती बिहौती के सईयाँ सवनवा। कि अबही चुनरिया बा कोर ॥
सावन के महीने में ही ‘कोरी धरा’ धानी रंग से रंग कर ‘धरा’ से ‘धन्य धरा’ हो जाती है। यहाँ तक कि गाँव की धाना (प्रिया) भी जब अपने प्रिय से चुनरी की माँग करती है तो धानी चुनरी की ही माँग करती है, और साथ-साथ चेतावनी भी देती है कि अगर चुनरी नही मिली तो सेज पर अँगुली दिखा देगी। मोहम्म्द खलील ने धाना के चुनरी स्पृहित भाव को बखूबी अपने शब्दों में मूर्त किया है। जो इस प्रकार है
ले ले अईहऽऽ बालम, बजरिया से चुनरी। ना त तरसा देब, हमहूँ देखा देब, सेजरिया प अँगुरी।।
सावन पुरुषों से अधिक स्त्रियों की ऋतु है। उनके उल्लास की, उनके उत्सव मनाने, गाने बजाने और साथ ही साथ अपने चित्त में पलते दुखों को गाने और गा गा कर चित्त को हल्का करने की भी ऋतु है सावन। सावन में हर ब्याहता स्त्री अपने पीहर के लिए तड़पती है और अपने माता-पिता या भाई बहन का निहोरा इस उम्मीद में करती है कि पिया आएगा और उन्हें अपने साथ ले जाएगा।