जमशेदपुर : कारगिल युद्ध में अपने दोनो हाथ और पैर गंवाने वाले बिहार रेजीमेंट के सिपाही मानिक वर्धा के हौसलों में कोई कमी नहीं आयी है। उन्होंने कहा कि भले ही कारगिल युद्ध को 23 साल बीत गये हो। लेकिन उनके लिए यह कल की बात है। उनकी आंखों के सामने हर एक मंजर आज भी दिखाई पड़ता है। पाकिस्तान के नामो निशान मिटाने की तमन्ना उनके दिल में आज भी है। भले ही उनके हाथ-पैर नहीं है। लेकिन उनकी भुजाएं आज भी पाकिस्तान से बदला लेने के लिए फड़क उठती है। डबल सर्जिकल स्ट्राइक के बाद पाकिस्तान को यह बात अच्छी तरह से समझ आ गयी है कि अब यदि उसने किसी तरह का युद्ध छेड़ा तो भारतीय सेना उसका धरती से नामो निशान मिटा देगी। कारगिल युद्ध में गोविंदपुर गदरा निवासी मानिक वर्धा झारखंड का नाम रौशन करने वाले के व्यवहार में आज भी कोई परिवर्तन देखने को नहीं मिलता है। मानिक वर्धा ने बताया कि कारगिल से पहले श्रीलंका भेजी गयी शांति सेना का भी वे हिस्सा रहे हैं। उन्होंने बताया कि कारगिल की पहाड़ियों पर पाकिस्तानी सेना और आइएसआइ के एजेंटों की भनक भारतीय सेना को लग चुकी थी। हवलदार मानिक वर्धा अपनी टुकड़ी के साथ 1999 में कारगिल युद्ध के लिए निकले थे। कई स्थानों पर रुकते हुए उरी सेक्टर में पहुंचे। जहां बर्फीली पहाड़ियों की सुरक्षा के लिए तैनात किया गया। जैसे ही वे लोग पहुंचे जबर्दस्त फायरिंग शुरू हो गयी। उन्हें इस बात का एहसास हुआ कि फौजी के लिए युद्ध ही सबसे स्वर्णिम घड़ी है। किस्मत वाले फौजियों को ही अल्प समय की नौकरी के दौरान युद्ध नसीब होती है। युद्ध के दौरान जहां लगातार फायरिंग हो रही थी। वहीं बाईं तरफ की पहाड़ भी खिसक रहे थे। इसी दौरान फीले पहाड़ ने उनके साथ चार साथियों को अपने आगोश में ले लिया। ये लोग लगभग 18 घंटे बर्फ में दबे रहे। उनके टुकड़ी के साथियों ने उनकी खबर ली और उन्हें बहर निकाला। इस दौरान एक साथी शहीद हो गया। उन्हें इलाज के लिए पहले श्रीनगर, फिर उधमपुर और पुणे के आर्टिफिशियल लिब फिटिंग सेंटर में भेजा गया। उन्हें इस बात का अफसोस है कि वे अपना मिशन पूरा नहीं कर पाये। मानिक वर्धा की पत्नी टीचर है। वहीं बड़ा बेटा दिल्ली में इंजीनियर है और छोटा बेटा जमशेदपुर मे उच्च शिक्षा हासिल कर रहा है।