मौन संभालें रखिए

जीवन की पीड़ाओ को
संवेदना विहीन लोगों से क्यों कहना।
कर्मों से उपजे आत्मा बलों का यूं बेबस होकर रेत की तरह क्यों ढहना ।
जो मौन को न समझे उसे शब्दों से क्यों कहना। प्रतिकूल वक्त के बदलने तक
मौन को संभाले रखिए।।

जब-जब सही बात करने के बाद भी बातें बिगड़ने लगे।
कटु व्यंगो की बौछार से नेत्र से खून की धारा टपकने लगे ।
ह्रदय चित्कार करता हो
होंठ थरथराते हो।
शब्दों की माला टूट कर बिखरने लगे ।
अपने अंतर्मन की ज्वाला को स्वयं के भीतर पाले रखिए ।।
और मौन को संभाले रखीए।।

  कर्म और निष्ठा से सहयोग करने पर भी स्नेह का एक स्पर्श तक ना हो ।
  ईर्ष्या और द्वेष से जलने लगे ।
  उन्हें अपने बहुमूल्य सुझाव क्यों देना ।
  अंतर्मन ही आपके अंतर आत्मा से झगड़ने लगे ।
  तब आनथक कर्तव्य पथ पर चलते रहिए ।
  और प्रतिकूल वक्त के बदलने तक मौन को संभाले रखिए ।।

अंधकार के बाद प्रकाश की किरण जरूर आएगी ।
दिल और दिमाग में दिल की जीत होगी।
पश्चाताप से चेहरे आपके सामने झलकने लगेंगे ।
बस कर्म करते रहिए
बाकी ईश्वर के हवाले छोड़ दीजिए ।
बस मौन को संभाले रखिए।।

संध्या उर्वशी स्वरचित

रचना राँची झारखंड

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