वर्तमान राजनीति में कांग्रेस की कुछ ऐसी गतिविधियाँ रही हैं कि भारतीय सनातन सभ्यता व संस्कृति या बहुसंख्यक समुदाय को आघात लगा है।
मैं समझता हूँ कि 1986 में शाहबानो केस पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को जब कांग्रेस ने पलट दिया,मेरे हिसाब से वहीं से भारतीय जनमानस का विचारधारात्मक प्रवाह दो ध्रुवों में बँट गया जिसके विरोध में एक बहुत बड़ी जनसंख्या खड़ी हो गई और शायद यहीं से काँग्रेस का अस्तित्व खतरे में आता नजर आया।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने अपने परम्परागत व्यवहार, व्यवस्था व स्वरूप को नष्ट करने का प्रयास किया है जिसके कारण भारतीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी का प्रादुर्भाव हुआ और सत्ता से दूर होता गया। मैं समझता हूँ कि इसके लिए कांग्रेस की वर्तमान विचारधारा व शीर्ष नेतृत्व जिम्मेदार है।मैं ऐसा कदापि नहीं चाहता हूँ कि भारत में केंद्रीय नेतृत्व किसी क्षेत्रीय भाषा व क्षेत्रीय पार्टियों पर आधारित हो चाहे वो कितना भी प्रभावपूर्ण या समृद्ध हो ।साथ ही यह भी मानना है कि एक स्वतंत्र,निष्पक्ष और मजबूत विपक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य की विशेषता है।अतः यदि सत्ता भाजपा के हाथों निहित है तो कांग्रेस को एक मजबूत विपक्ष की भूमिका का निर्वहन करना हीं होगा क्योंकि क्षेत्रीय पार्टियों पर आधारित विपक्ष टुकड़ों में विचारधारा स्थापित करते हुए अपने विचारों को सम्पूर्ण देश को थोपता है जो सही नहीं है । अतः पक्ष या विपक्ष में कोई भी राष्ट्रीय स्तर की बड़ी पार्टी ही हो।साथ ही यदि गठबंधन समान विचारधारा पर आधारित पार्टियों में हो।यह नहीं कि केंद्र में सपोर्ट और राज्य में विरोध।
कांग्रेस का भारत विभाजन में भूमिका,पाक अधिकृत कश्मीर का निर्माण, कुछ क्षेत्रों में चीनी अधिपत्य को आसानी से स्वीकार कर लेना,हिन्दू कोड बिल को हवा देना,संसद के बाहर साधूओं की हत्या, सिख नरसंहार, वंशवाद, जातिवाद,भ्रष्टाचार,इमरजेन्सी,धारा 370 का समर्थन, सेना पर सवाल,विभिन्न प्रकार के घोटाले , बाबरी मस्जिद व राम मंदिर निर्माण विवाद, तीन तालाक ,CAA और NRC तथा वर्तमान हिजाब विवाद आदि कई मुद्दे हैं जिसके पीछे भारत का विपक्ष या सत्तारूढ पार्टियाँ हाथ धोकर कांग्रेस के पीछे पड़ गए जिसका कांग्रेस सही बचाव नहीं कर सकी।कभी-कभार तो कांग्रेस ऐसा बोल जाती है या सत्ता का विरोध करते करते देश का भी विरोध कर जाती है और अंतत: जनमानस का कोपभाजन बनना पड़ जाता है। कांग्रेस चाहे सत्तारूढ हो या विपक्ष में इन मुद्दों पर अपना सही निर्वहन नहीं कर पायी है। दो दिन पहले प्रधानमंत्री ने भी राज्यसभा में भाषण के क्रम में इस बात का जिक्र किया।
इसलिए मैं समझता हूँ उस समय यदि बात मान लिया जाता जब महात्मा गाँधी जी ने किसी समय कहा था कि आजादी प्राप्त हो गई अब कांग्रेस को अलग राजनीतिक पार्टी के रूप में लड़ना चाहिए तो भारतीय राजनीति में कांग्रेस उतना सशक्त न होता जितना कि आजादी के बाद 70 सालों तक रही। मेरे विचार से कांग्रेस को किसी भी क्षेत्रीय दलों के गठबंधन के पचड़े में न पड़कर तथा सेकुलर सेकुलर विचार वाला खेल छोड़कर स्वतंत्र व निष्पक्ष रूप से जनता के बीच जाना चाहिए अत्यधिक तुष्टिकरण की नीति उसके लिए घातक सिद्ध हो सकता है।यह बात अलग है कि उसकी नीति जनता को स्वीकार न हो फिर भी प्रयासरत होने से अंततः भारत में दोनों पार्टियों (भाजपा व कांग्रेस) के बीच सत्ता का हस्तांतरण होता रहेगा ।ऐसा मेरा मानना है।लेकिन वर्तमान चुनाव की बात तो छोड़ दें , आगामी समय में भी दूर दूर तक कांग्रेस के लिए भाजपा को हराने की संभावना नहीं नजर आती है ; क्योंकि भाजपा ने भारतीय जनमानस की आत्मा की आवाज या बहुसंख्यक की नस को पकड़कर राजनीति की शुरुआत की है ।
वास्तव में राष्ट्रवाद व हिन्दूत्व भारतीय राजनीति का आधारस्तंभ बन चुका है। यह एक ऐसा मुद्दा है जो अनवरत मुद्दतों तक चलता रहेगा और इसका जो विरोध करेगा वह गर्त में जाएगा और कांग्रेस तथा भाजपा की दशा और दिशा इसी सोच के कारण बदली है।प्रारंभिक दिनों में अत्यधिक तुष्टिकरण की नीति ने बहुसंख्यक समुदाय को आहत किया है और परिणामस्वरूप एक बहुत बड़ी तादाद में लोग विपक्ष की ओर देखने लगे।दूसरी ओर अल्पसंख्यक समाज अपने कल्याणार्थ विभिन्न क्षेत्रीय दलों के समर्थन में चले गए और यही कारण है कि भाजपा दो से पचंड बहुमत तक पहूँच गई तथा कांग्रेस के हाथ कुछ ना मिला । अल्पसंख्यक वर्ग विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे प्रत्याशियों को तलाशने लगे जो भाजपा को हरा सके और इस प्रकार भारतीय राजनीति में दो प्रमुख दलों का उठा पटक अनवरत जारी है।
अब देखते हैं भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है?
लेखक एक शिक्षाविद है।
सुबोध कुमार झा