शीर्षक : कैक्टस
कैक्टस को देखती हूँ ,
ना खाद ना पानी ,
फिर भी जीवित है ,
पनप जाती है,
पथरीली -रेगिस्तानी,
मरुभूमि में,
जिजीविषा ऐसी ,
कोमल पत्तियाँ ,
और अहा !!
छोटे फूल भी ,
उगा लेती है ,
अपनी सूखी ,
काँटेदार संरचना पर ,
कहाँ से लाती है ,
यह असीम शक्ति ,
धुंधले हो गए चश्मे को ,
उतारती हूँ ,
पोछती हूँ ,
पहनती हूँ ,
अरे !!यह क्या ??
यह और कोई नहीं,
स्त्री है ,
धरतीपुत्री ,
सहनशीलता की मूर्ति ,
धन्य है तू ,
नमन है तुझे !!
स्वरचित एवं मौलिक
संध्या प्रकाश
राँची, झारखंड